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श्राद्ध में पिण्डदान क्यों ?
       श्राद्ध में पिण्डदान क्यों करना चाहिये ? यह बात पाठक तब तक पूरी तरह नहीं समझ पाएंगे जब तक कि पहिले वे जन्म और मृत्यु के सम्बन्ध में कुछ शास्त्रीय रहस्य हृदयगंम न कर लेंगे। ‘अण्ड-पिण्ड सिद्धांत’ के अनुसार यह तो पूर्व प्रकट किया जा चुका है कि प्राणियों का प्रत्यक्षहष्ट देह जड़ और स्थूल है तथा इसका अगोचर अभिमानी जीव चेतन और सूक्ष्म है। यह शरीर जहां कोषात्मक विश्लेषण के अनुसार 1. अन्नमय, 2. प्राणमय, 3. मनोमय, 4. विज्ञानमय और 5. आनंदमय, पांच प्रकार का है वहां प्रकारान्तर से 1. स्थूल, 2. सूक्ष्म और 3 कारण नाम से त्रौविध्य-संपन्न भी है।
       सो स्थूल पन्च महाभूतों से संयुक्त होकर भूमंडल में प्रकट होने का नाम ही ‘जन्म’ है और उनसे वियुक्त होकर लोकांतर गमन का नाम ही ‘मृत्यु’ है। तदनुसार मृत्यु किसी ऐसी भयंकर स्थिति का नाम नहीं है जबकि प्राणी सर्वदा के लिये सर्वथा सत्ताहीन हो जाता हो, किन्तु स्थूल देह को छोड़कर जब जीवात्मा पृथक् होती है तब भी वह 17 तत्वों से बने सूक्ष्म शरीर से संबद्ध बनाकर रखती है। सूक्ष्म शरीर के संबन्ध में लिखा है कि:
वागादि पन्च श्रवर्णाद पन्च, प्राणानि पन्चाभ्रमुखानि पन्च।
बुद्धि याद्यविद्या अपि च कामकर्मणी, पुर्यष्टकं सूक्ष्मशरीरमाहुः।।
       अर्थात् वाणी आदि पंाच कर्मेद्रिय, श्रवण आदि पन्च ज्ञानेन्द्रिय, पांच प्राण, आकाश आदि पांच महाभूत, मनः, बुद्धि चित्त अहंकारात्मक अन्तःकरण चतुष्टय और अविद्या काम तथा कर्म इन कुल 27 तत्वों के संघात से बनी हुई यह देह है। स्थूल पंच महाभूत और स्थूल कर्मेन्द्रियों को छोड़कर शेष 17 तत्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर होता है।
       4 जब प्राणी मरता है तो उसके हाथ-पांव आदि अंग निश्चेष्ट हो जाते हैं, इंद्रियों की देखने सुनने आदि की शक्तियों क्रमशः एक-एक करके नष्ट होने लगती हैं। प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान स्थान भेदेन पचविध प्राणवायु अपने अपने स्थानों से चयुत हो जाता है। इस तरह अपान और उदान वायु का तार तम्य बिगड़ते ही प्राण वायु का अवरोध् हो जाता है, इस अवस्था का अपर नाम ही लोक में ‘मृत्यु’ प्रसिद्ध है। बालाग्र शतभाग के भी शतांशभूत, अतिसूक्ष्म जीव का जब स्थूल शरीर से प्रयाण होता है तो वह पूर्वोक्त तत्वों के संघात से आवेष्टित होकर ‘अंगुष्ठप्रमाण’ मध्य अपलक्षित होता है। यद्यपि यह उसकी अंगुष्ठ-प्रमाणता भी किसी स्थूल पदार्थ की भांति मेय किंव ज्ञेय नहीं होती तथा प ‘रंहति संपरिष्वक्तः’ आदि वेदान्त दर्शन के सूत्र में और ‘वायुर्गन्धनिवाशयात्’ आदि श्रीमद्भगवद् गीता (अ.15 श्लो.8) के प्रमाण में जैसे पुष्प संस्पृष्ठ वायु फूल की सूक्ष्म गन्ध को भी अपने साथ उड़ा ले जाता है, इसी प्रकार यह जीव भी पांच भौतिक स्थूल शरीर से पृथक होता हुआ तगद्त सूक्ष्म भूतांशों को भी अपने साथ ले जाता है जिसका उपलक्षण शास्त्रों में ‘ अंगुष्ठमात्राः पुरुषः’ कहा गया है।
       सूक्ष्म शरीरधरी जीव इस लोक के सतत अभ्यास के कारण परलोक में भी तत्तद् इन्द्रियों के विषयों की अभिलाषा करता है परन्तु उन अभिलाषाओं की पूर्ति का साधक ‘भोगायतन’ देह न होने के कारण वह उपभोग में कृतकार्य नहीं हो पाता। इस दशा का कुछ अनुमान इस प्रकार हो सकता है कि जैसे राग-रसिक पुरुष वधिर हो जाने पर, सिनेमा का शौकीन अन्धा हो जाने पर और इतर-फुलेलों का व्यसनी नाक कट जाने पर पूर्वानुभूत विषयों का बार-बार स्मरण करता हुआ भी तत्तद् विषय ग्राहक इन्द्रियों के अभाव में सन्तान को प्राप्त होता है। यही दशा प्रायः भोगायतन शरीर रहित जीव की होती है। उक्त अभिलाषाओं के सात्विक, राजस और तामस होने के तारतम्य से ही यह जीव, देव-पितर, भूत-प्रेत और पिशाच आदि भली और बुरी नानाविध योनियों में प्रविष्ट होने के कारण नाना नामों से स्मरण किया जाने लगता है। परलोकगत जीव को तादृश भोगायतन पिण्ड की प्राप्ति हो, एतदर्थ वेद-शास्त्र ने मृतक के निमित्त श्राद्ध के अन्यमत अंग दशगात्र पिण्डदान आदि का विधन किया है।
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