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शंख का जल क्यों छिड़का जाए?
अभी नीराजन आरती के प्रसंग में शंख में जल भरकर दर्शकों पर छिड़कने का उल्लेख किया गया है यह क्यों? ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है कि:- जलेनापूर्य शंखे च तत्र संस्थापयेद् बुधः। पूजोपकरणं तेन, जलेन क्षालयेत्पुनः।। (ब्र. वै. ब्रह्मखण्ड 26-67) अर्थात्- शंख में जल भरकर देवस्थान में रखे, पुनः उससे समस्त पूजा सामग्री का प्रक्षालन करे। ‘वस्तु वैचियवाद’ के अनुसार शंखस्थ जल और वह भी विष्णु भगवान् की प्रतिमा के सामने उपहृत परम पवित्र माना गया है। अथर्ववेद के शंख को मणि नाम से स्मरण किया है और इसकी महिमा के वर्णन में पूरा एक सूक्त भरा है। पात्र के संयोग से अमुक वस्तु भी उसके गुणों से प्रभावित हो जाती है, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है, जैसे पीतल के वर्तन में मट्ठा विकृत हो जाता है, कांसे प्रोर ताम्बे बर्तन में भी घृत आदि द्रव्य बिगड़ जाते हैं, इसी प्रकार अमुक पात्र में तत्तद् वस्तुवें तद्गुण-सम्पन्न हो जानी स्वाभाविक है। सो शंखस्थ पावक गुणों से अन्यान्य वस्तुओं और दर्शकों को भी लाभान्वित केसे किया जाए-इसका सहज उपाय यही हो सकता है कि तत्संयुक्त जल में शंख के गुणों का आधान करके फिर उसे सर्वत्र वितरण किया जाए। इस क्रिया में यह भी समझ लेना आवश्यक है कि जल में डाले हुए द्रव्यों की विशेषता सौ गुणी हो जाती हैं, यह हम ‘वस्तु वैचियवाद’ प्रघट्ट में सिद्ध कर आये हैं। सो शंखस्थ जल के सेवन से संस्पृष्ट समस्त वस्तुजात विशुद्ध हो जाती है। सगर्भा स्त्री यदि शंखस्थ जल द्वारा स्नान शालिग्राम शिला का चरणामृत पान करे तो अन्यान्य लाभों के साथ उससे प्रसूत बालक कभी मूक नहीं हो सकता। रुक-रुककर बोलने वाले हकले व्यक्ति पर तो मैनें शंखजल पान का स्वयं प्रयोग करके देखा है। पाठक स्वयं भी अनुभव कर सकते हैं। धैर्य और नैरन्तरर्य की आवश्यकता है, लाभ अवश्य होगा। |
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