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दीक्षान्त समारोह फोटो

 
क्या कर्म अवश्य भोगने पड़ते है?

       क्या ज्ञानी को भी किये कर्म अवश्य ही भोगने पड़ते है? अथवा किसी दशा में बिना भोगे भी कर्मो की परिसर्माप्त हो सकती है? इस जटिल समस्या पर प्रकाश डाले बिना यदि इस प्रघट्ट का उपसंहार कर दिया जाए तो यह ‘ज्ञान-काण्ड-विचार’ अधूरा ही रह जाता है। एतदर्थ इस विषय का भी प्रतिपादन किया जाता है। कर्म विपाक का सिद्धान्त है कि चाहे सौ करोड़ कल्प भी क्यों न बीत जायें परन्तु बिना भोगे कभी कर्म नहीं छूटता।
       जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु तज्जन्य फल भोगने में सर्वथा परतन्त्र है। मीमांसक लोग तो कर्म को ही ईश्वर मानते हैं, ऐसी स्थिति में कर्मो के क्षय हो जाने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। भोक्ता, भोग्य और भोगावधि तीनों वस्तुवें एकमात्र कर्म पर ही अवलम्बित हैं। बिना मूल कारण संसार में कुछ भी नहीं होता। ऐसी स्थिति में नानाविध योनियों में जीवों के नानाविध योनियों में जीवों के नानाविध देह, देहधारणर्थ उनके नानाविध खान-पान, अथः विभिन्न आयुःस्तर-यह सब तारतम्य न       संवत् चौदह के गदर की आंखों देखी घटनाओं का वर्णन करे। आखिर यह सब भेद क्यों?
       पुनर्जन्म और कर्म-विपाक सिद्धात में विश्वास न रखने के कारण अहिन्दू सम्प्रदायों के पास इन जन्मजात वैषम्यो के मूल कारण का कोई उत्तर नहीं, परन्तु वेदादि शास्त्रों के कर्मवाद सिद्धान्त को दर्शनकार महर्षि ने केवल एक सूत्र में उपनिबद्ध कर दिया है जिससे जीव-सृष्टि के नानाविध तारतम्य का मूल हेतु विदित हो जाता है। जैसे बीज की विद्यमानता में ही अनुकूल अवसर आने पर उसें अंकुर फूट पड़ता है, इसी प्रकार जीवों के प्राक्कृत शुभाशुभ कर्म ही विपक्व होकर उसे जन्मरुप में अंकुरित करते है जिनके तारतम्य से ही जाति आयुः और भोगों का वैविध्य दृष्टिगोचर होता है।
       कहना न होगा कि भोक्ता, भोग्य, और भोगावधि तीनों वस्तुओं का जन्मजात विभेद कर्म-विपाक का ही विपरिणाम है।
       भर्तृहरि कवि ने-‘ब्रह्म येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे’ आदि श्लोक बड़े ही व्यंग्यपूर्ण रोचक ढंग सेकर्म का प्राधान्य प्रकट करते हुए लिखा है कि कर्म के ही नियोग से ब्रह्माजी कुम्हार की भान्ति निरन्तर ब्रह्माण्ड रुप मटके घड़ने में व्यस्त रहते हैं, कर्म के ही नियोग से श्रीविष्णु भगवान् संरक्षा के गुरुतर भारोद्वहन में सदैव जहां
       जागरुक बने रहने के लिए विषधर सर्प के आसन पर विराजते हैं, सहस्त्र मुखों से निस्मृत फूत्कारों के कोलाहलपूर्ण वातावरण में निंद्रा, तन्द्रा हराम हो जाती है। कर्म के ही कटाक्ष कोण से प्रभावित शिवशंकर हिमालय की ठिठुरती सर्दी में दिगम्बर बने विष पी-पीकर अपनी ड्यूटी को सरअन्जाम देते हैं। कर्म के चक्कर में पड़े ही सूर्यचंद्रादिक ग्रहोपग्रह अहर्निश परिभ्रमण करते हैं। सो ऐसे सर्वातिशायी खुदा के बड़े भाई कर्म महाराज को हमारी सौ-सौ जुहार।
       यद्यपि उपर्युक्त वर्णन केवल चमत्कारमय कवित्व है तथापि इसमें तथ्य अंश का अभाव नहीं। वस्तुतः श्रीमन्नारायण भगवान् जब ‘लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्’ में प्रवृत्त होते हैं तब उन्हें स्वयं ‘सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्गुणस्तैर्युक्तः परः पुरुष एक इहास्य धत्ते। स्थिात्यादये हरिविर´िचहरेति संज्ञाम्..............’ के अनुसार प्रकृति के सत्त्व, रज और तमः इन तीन गुणों के तारतम्य से सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति और संहार के लिए ब्रह्मा विष्णु और रुद्र रुप में अवतीर्ण होना पड़ता है। यह ठीक है कि वे सर्वतंत्र स्वतन्त्र हैं, किसी दूसरे का नियोगांकुश उन्हें ऐसा करने को बाध्य हीं कर सकता, तथापि वे ‘कर्तुम्-अकर्तुम्-अन्यथा कर्तुम्’ प्रभु होते हुए भी स्वेच्छा से अपने लीला नियमों में तो स्वयं आबद्ध हैं।
       भूर्भुवः स्व तीनों लोक का प्रलय हो जो पर यहां के अभुक्तकर्म उच्चात्मा प्राणी महर्लोक में निवास करते हैं। जब उन प्राणियों के अवशिष्ट कर्म भोगोन्मुख होते हैं तब भगवान् पुनः सृष्टि का उपक्रम करके उन्हें कर्मोपभोग का अवसर देते हैं। यह स्थिति निस्सन्देह श्रीमन्नारायण को भी जीवों के कर्मोपभोगार्थ पुनः सृष्टि ‘स्थति-संहार-लीलाभिनय करने को प्रेरित करती है। प्रकारान्तर से भक्तों के कर्मोपभोग का प्राबल्य ही भगवान् की तादृशी लीलाओं का हेतु हुआ। इस कर्म-प्राधान्य को इससे भी अधिक समझा हो तो सीधा-सीधा यूँ कह लीजिये कि- मनु-शतरुपा ने तपःकर्म से भगवान् को सन्तुष्ट किया और तादृश पुत्रप्राप्ति का वर माँगने पर ‘नृप तव तनय होव मैं आई’ के अनुसार उन्हें स्वयं अवतरित होना पड़ा। प्रहलाद ने स्तंभ में भगवत्सत्त की व्यापकता का उद्घोष किया। भगवान् को-‘सत्य विधातुँ निजभृत्यभाषितम्.....मध्ये सभायां न मृगं न मानुषम् के अनुसार भक्त की वाणी को सत्य सिद्ध करने के लिये नृसिह रुप से अवतरित होना पड़ा। अन्यान्य भक्तों के कर्म-कलाप के प्राबल्य से किसी का पुत्र, किसी का भाई, किसी का पति, तो किसी का जँवाई बनने को बाध्य होना पड़ा। अत्याचार पीड़ित अबला के संरक्षाणार्थ लडते-लड़ते अपने प्रिय प्राणों को भी न्यौछाबर कर देने वाले जटायु के लोकोत्तर सत्कर्म से पसीज कर श्री राम भगवान् को उसके पंखों में लगी धूल अपनी जटाओं से झाड़नी पड़ी, और सूय्र्यचंद्र के उद्गम केन्द्र अपने विशाल नेत्रों से गंगा यमुना की भाँति झरती हुई गर्म और ठण्डी दोनों धाराओं को समशीतोष्ण कर के उसे अन्तिम स्नान कराना पड़ा।
       सो कर्म का इतना बड़ा महत्त्व है कि न केवल यह जड़चेतनात्मक जंगम जगत् ही कर्मसम्भूत है, किन्तु जगन्नायक जनार्दन के तत्तत्-अवतार भी कर्म-सम्भूत ही हैं, फिर चाहे वे कर्म भक्तों द्वारा उपार्जित ही क्यों न हों। जब सर्वशक्तिमान् भी कर्मफल दाता के रुप में कर्मो से असंयुक्त नहीं, फिर यह अल्पशक्ति जीव बिना भोगे कर्मफल के पचड़े से कैसे छूट सकता है? न्यायालय में न्यायाधीश और अभियुक्त दोनों समान हैं। यह ठीक है कि न्यायाधीश निर्णायक है और अभियुक्त बन्धन मुक्ति=सजा रिहाई का भोक्ता है, परन्तु आखिर है दोनों कोर्ट सम्बद्ध व्यक्ति। ठीक इसी प्रकार कर्म-फलदाता ईश्वर और कर्म फल भोक्ता जीव दोनों ही कर्मसंपृक्त-कोटि में हैं। कर्म बिना भोगे क्षीण नहीं होता, प्रकृति का सर्व साधारण नियम यही है।
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