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लक्ष्मीजी के साथ गणेशजी की ही आराधना क्यों?
दीपावली के पर्व पर हमेशा लक्ष्मीजी के साथ गणेशजी की आराधना होती है जबकि धर्म मतानुसार लक्ष्मीजी के साथ भगवान विष्णुजी की आराधना होनी चाहिए। ऐसा क्यों? दीपावली का त्यौहार धन व समृद्धि का त्यौहार है। धन यानी अर्थ की देवी हैं- लक्ष्मी जी परन्तु यह भी नितान्त सत्य है कि बिनी बुद्धि के धन या अर्थ व्यर्थ है। इसलिए धन सम्पत्ति की प्राप्ति हेतु माँ लक्ष्मी तथा बुद्धिमता की प्राप्ति हेतु भगवान गणेश जी की आराधना का प्रचलन है क्योंकि यह तो मानना ही पड़ेगा कि लक्ष्मी जी स्थिरता के स्थायित्व को प्राप्त करती है। जब बुद्धि का प्रयोग किया जाये। गणेश जी सिद्धिदायक देवता के रूप में जग प्रसिद्ध है जीवन को मंगलमय, निर्विघन और शान्तिदायक व्यतीत करने के लिए गणेशजी की आराधना से बेहतर भला क्या हो सकता है। ऐसे हुई माँ लक्ष्मी अवतरितः भारतीय पुराणों में वर्णन मिलता है कि एक बार भूलवश भगवान इन्द्र ने ऋषि दुर्वासा द्वारा प्रदान की गई पुष्पमाला का अपमान कर दिया था। इसी बात से कुपित होकर मुनिवर ने भगवान इन्द्र को श्राप दिया और उन्हें अपना साम्राज्य खोना पड़ा जिससे सभी देवतागण और मृत्युलोक भी श्री हीन हो गये। नाराज होने के कारण लक्ष्मीजी बड़े दुखी हृदय से स्वर्गलोक को त्याग कर, बैंकुण्ठधाम आ गई और महालक्ष्मी में लीन हो गयीं। देवता दुःखी मन से ब्रह्मा जी के पास आए और उनको साथ लेकर बैंकुण्ठ गये। वहाँ उन्होंने श्री नारायण से अपनी व्यथा कही। तब उन्होंने, उन्हें बताया कि वे असुरों की सहायता से सागर मंथन करें। तब उन्हें सिन्धु कन्या के रूप में लक्ष्मी पुनः प्राप्त हो सकेगी। रत्नों की अभिलाषा एवं अमर होने की इच्छा से देवता तथा असुरों ने मिलकर एक साथ समुन्द्र मंथन किया जिसमें अनेक प्रकार के रत्न प्रकट हुए। सबसे पहले उसमें विष निकला जिसे भगवान शिव ने पी लिया। विष के बाद कामधेनु उत्पन्न हुई तत्पश्चात् उच्चश्रुवा अश्व, ऐरावत हाथी, काँस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, शंख, धनु, धन्वन्तरी, शशि और कुल मिलकार चौदह रत्न सागर से निकले। इन सबके उपरान्त दशों दिशाओं का अपनी कान्ति से चकाचौंध करने वाली श्रीलक्ष्मी जी उत्पन्न हुई, जिनको देखते ही कुछ समय के लिए समुन्द्र मंथन कुछ समय के लिए रूक गया क्योंकि महालक्ष्मी की अद्भुत छटा को देखकर देवता और असुर दोनों ही अपना होश खो बैठे थे और दोनों ही उनकी प्राप्ति की इच्छा करने लगे, परन्तु तभी देवराज इन्द्र ने उनके लिए सुन्दर आसन लगाया जिस पर वे आसीन हो गई। लक्ष्मी पूजन की सभी सामग्री एकत्रित कर ऋषियों ने विधि विधान से उनका अभिषेक किया, पूजन के पश्चात् सागर ने उन्हें पीले वस्त्र और विश्वकर्मा ने दिव्य कमल समर्पित किया। इसके पश्चात् मांगलिक वस्त्रो और आभूषणों से सुसज्जित होकर लक्ष्मीजी ने देवताओं और असुरों पर एक दिव्य दृष्टि डाली परन्तु उनमें से उन्हें जीवन साथी के रूप में कोई योग्य वर दिखाई न पड़ा क्योंकि उन्हें तो श्री भगवान विष्णु ने खोजा था, तब जैसे ही उन्हें भगवान विष्णु दिखाई दिये वैसे ही उन्होंने अपने हाथों में पकड़ी हुई कमलों की माला भगवान विष्णु को पहना दी। भगवान विष्णु ने उन्हें अपने वाम अंग में स्थान दिया और उन्हें हृदयरूपी अचल पद दिया। इस तरह से माँ लक्ष्मी भगवान विष्णु के पास विराजित हुई और सृष्टि में अवतरित हुई । |
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