Bhavishy Darshan
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Tantrik Pendant/ तांत्रिक लाकेट

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दीक्षान्त समारोह फोटो

 
ब्राह्मणों का महत्व क्यों?
      यदि वस्तुतः सभी वर्ण समान हैं तो फिर ‘वर्णनां ब्राह्मणों गुरू’-‘पूजिय विप्र ज्ञान-गुण हीना’- का भ्रामक प्रोपेगण्डा करके नित्य ब्राह्मणों के ही पांव पूजने को क्यों वाध्य किया जाता है? निःसन्देह सभी वर्ण समान है, एक स्वधर्मनिष्ठ अन्त्यज भी स्वधर्म भ्रष्ठ ब्राह्मण की अपेक्ष कहीं अधिक सम्मान्य हैं, धर्म व्याध और रावण इसके प्रत्यक्ष निदर्शन है। तथापि जैसे हमारे मानव पिण्ड में समस्त अग्ड़ सापेक्ष होते हुवे भी अमुक ध्रुव है और अमुक अग्ड़ ‘अध्रुव है-यह प्राकृतिक विधान प्रत्यक्ष देखा जा सकता है वैसे ही ब्राह्मण आदि वणों में भी प्राकृतिक तारतम्य अवश्य है। हाथ पांव अग्ड़ कट जाने भी लूला लंगड़ा मनुष्य जीवित रह सकता है परन्तु शिर कट जाने पर क्षण मात्र भी जीवित नहीं रह सकता। सो हाथ-पांव आदि अग्ड़ शास्त्रीय परिभाषा में ‘अध्रुव’ कहे जाते है और मस्तक ‘ध्रुव कहलाता है।
      ठीक इसी प्रकार ब्राह्मणादि पांचों वणों में-क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अन्त्यजों द्वारा स्वधर्म पालन में शैथिल्य करने भी दास, भिखमंगा, अकिंचन और खच्चर-गलीज बनकर यथा-कथंचित मानव समाज दौर्भाग्यपूर्ण जीवन बिता सकने की स्थिति में अपना अस्तित्व रख सकता है परन्तु ब्राह्मण वर्ण के मिट जाने से समूचे देश की ही मानसिक, आध्यात्मिक-नैतिक और इखलाकी मृत्यु अवश्म्भावी है। मनुजी के कथानुसार आज की ये समस्त अहिन्दू बर्वर जातियाँ कल विश्वविजयी आर्य क्षत्रिय ही थे जो केवल ब्राह्मणों के सम्पर्क में न रहने के कारण ‘वृषल’ म्लेछ बन गए हैं। इसलिये शास्त्रों में बौद्धिक जीवन के नेता होने के कारण-ब्राह्मण वर्ण को ‘गुरू’=ज्ञानोपदेष्टा और ‘पूज्य’=सम्मानार्ह प्रकट किया गया है।
      बुद्धि सम्पन्न मनुष्य दैवात् विकलाग्ड़ होता हुआ भी अपने बुद्धि वैभव के कारण बडे-बडे दायित्व पूर्ण कार्यो का भली भान्ति संचालन कर सकता है- यह लोक में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। परन्तु सर्वाग्ड़-पूर्ण सुन्दर मनुष्य भी विकृत मस्तिष्क होने पर स्वयं कुएँ में कूद पड़ने को तैयार हो जाता है अतः उसे पागलखाने में बन्द रखने के लिये विवश होना पड़ता है। अच्छे नेता के नेतृत्व में साधारण बिखरी हुई सेना भी सुसंगठित होकर अपने से अधिक शक्ति-सम्पन्न शत्रु- वाहिनी पर जिवय पा लेती है परन्तु नेता-हीन बड़ी से बड़ी शक्ति-शालिनी सेना भी प्रभात-कालीन धुन्ध के बादलों की भान्ति क्षण में तितर बितर हो जाती है। इसीलिये त्याग तपः और निःस्वार्थ सेवा की पावन मूर्ति ब्राह्मण के नेतृत्व का यह स्वभाविक सम्मान है जो कि अनेक ईष्यालु नास्तिकों द्वारा निरन्तर कोसा जाने पर भी अभी तक अक्षुण्ण चला आ रहा है। यह प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है कि प्रत्येक मनुष्य जब सोने लगता है तो पलंग किंवा जमीन के विस्तर पर लेटने पर उसे तब तक चैन नहीं पड़ती जब तक कि वह अपने उत्तमाग्ड़= मस्तक को अन्य अंगो के स्तर से कुछ ऊंचा न कर लें। इसीलिये विस्तर के साथ-सिरहाना=तकिया, उपवर्हण एक अनिवार्य आवश्यक अंग समझा जाता है। कदाचित् कभी शिर को ऊंचा करने की सामग्री उपलब्ध न हो तो मनुष्य अपने हाथ की टेक देकर ही इस अभाव की पूर्ति करता है, परन्तु शिर को अन्य अंगों से कुछ ऊंचा रखने पर ही समस्त शरीर को आराम मिलता है यह स्वभावसिद्ध बात है। सो ‘अण्ड-पिण्डवाद’ सिद्धान्त के अनुसार मानव-पिण्डस्थ मस्तक की भांति संसार में विराट् मुखोत्पन्न ब्राह्मण वर्ण के अभ्युत्थान में ही समस्त हिन्दू जाति का स्वास्थ्य निहित है। यदि दुर्भाग्यवश सर्व-साधारण इस प्राकृति नियम की उपेक्षा भी करे तो विराट् की भुजा से सम्भूत क्षत्रियवर्ण=शासक समाज का तो यह परम्परागत प्राकृतिक धर्म है कि वह ब्राह्मण के अभ्युत्थान के निमित्त अपने आपको वालंटियर करें। जिस राष्ट्र में ब्राह्मबल और क्षात्रबल दोनों एक दूसरे के पूरक बनकर रहते हैं वही राष्ट्र चिरथायी उन्नति का पात्र बन सकता है, यह अथर्ववेद की घोषणा है। यही ब्राह्मणों के महत्व का प्राकृति कारण है।
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