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दीक्षान्त समारोह फोटो

 
सगोत्रा विवाह क्यों निषिद्ध हैं ?
       जैसे असवर्ण विवाह है इसी प्रकार शास्त्रा में सगोत्रा और सपिण्ड विवाह का निषेध है यथा
असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः । सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने ।।

       अर्थात् जो माता की छः पीढ़ी में न हो तथा पिता के गोत्र में न हो ऐसी कन्या द्विजातियों में विवाह के लिये प्रशस्त है। सृष्टि के आदि में ब्रह्मा के जिन मानसिक पुत्रों से मैथुनी सृष्टि का प्रारम्भ हुआ वे महर्षि मुख्यतया गोत्र प्रवर्तक माने गये। आगे चलकर उनके पुत्र और शिष्य भी इसी श्रेणी में परिगणित हुये। कई पुत्रों और शिष्यों-दोनों ने ही समान रीति से अपने पिता और गुरु का नाम मूल गोत्र प्रवर्तक रूपेण स्वीकार किया, जैसे उदाहरणार्थ भारद्वाज और कौशिक गोत्र का नाम उपस्थित किया जा सकता है। परन्तु समान गोत्र होते हुए भी पिता का रक्त सम्बन्ध तो केवल औरस पुत्र से ही हो सकता था, भिन्न पिता की संतान होने के कारण स्वशिष्य से तो नहीं। ऐसी दशा मे समान गोत्र में भी औरस अनौरस भेद के ज्ञापनार्थ प्रवरों का प्रादुर्भाव हुआ। इस प्रकार एक ही गोत्र के कई 2 प्रकार के प्रवर नियत हुए। वैज्ञानिक रीति से जैसे अत्यन्त विजातीय असवर्ण से विवाह सम्बन्ध करने का निषेध है वैसे ही अत्यन्त सजातीय समान गोत्र और समान प्रवर से भी विवाह सम्बन्ध करना वर्जित है। स्ववर्ण की - किन्तु स्वगोत्रा और स्व-प्रवर की नहीं-कन्या से ही विवाह सम्बन्ध करना शास्त्र सम्मत है।
       समान गोत्र में भी प्रवर भेद से कई गोत्रों में परस्पर विवाह सम्बन्ध की परम्परा शिष्ट सम्मत है, जैसे कौशिक गोत्रा के तीन प्रकार के प्रवर ‘प्रवराध्यायी’ में प्रसिद्ध है।
       (1) कौशिकात्रि-जमदग्नयस्त्रायः प्रवराः
       (2) उतथ्यविश्वामित्रादेवारातस्त्रायः प्रवराः
       (3) अघमर्षविश्वामित्रादेवरातस्त्रायः प्रवराः।
       इनमें परस्पर विवाह सम्बन्ध होता है। इसी प्रकार भारद्वाज गोत्र में भी प्रवर भेद से विवाह सम्बन्ध प्रचलित है। विस्मृत गोत्र व्यक्तियों का ‘कश्यप’ गोत्र माना जाता है। यदि उभयपक्षों में ही विस्मरणापन्न ‘कश्यप’ गोत्र हो तो वह समान कोटि में परिगणित होकर विवाह सम्बन्ध में बाधक नहीं माना जाएगा। उक्त सब व्यवस्था की मीमांसा अपने आप न करके किसी विशेषज्ञ विद्वान् द्वारा ही करणीय है, क्योंकि साधक बाधक समस्त प्रमाणों का समन्वय किये बिना मनमाना आचरण कर बैठना प्रत्यवाय का हेतु है।
       ‘विवाह स्ववर्ण में हो, परन्तु स्वगोत्र में न हो’ इसका वैज्ञानिक हेतु यही है कि विजातीय सम्पर्क से दोनों वस्तुओं के गुण नष्ट होकर नवीन विकृति का प्रादुर्भाव होता है और अत्यन्त सजातीय संपर्क से मूल वस्तु में कुछ भी विशेषाधान नहीं होता।
       जैसे- यव, गुड़ और बबूर का कस-इन तीन विभिन्न विजातीय द्रव्यों के मिश्रण से मादक शराब का प्रादुर्भाव होता है, अथवा घृत, मधु जैसे उत्तमोत्तम स्वादिष्ट दो विजातीय द्रव्यों के सममिश्रण से भी प्राण-घातक विष तैयार हो जाता है। अत्यन्त सजातीय दूध को दूध में ही मिलाने पर कोई वैल-क्षण्य उत्पन्न होने का अवसर नहीं आता परन्तु सजातीय किन्तु विषम दो द्रव्यों के संमिश्रण से दोनों मूल द्रव्यों के गुण का अतीव विकास प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। जैसे दूध में तनिक सी तक्र का संमिश्रण उसे दही में परिणत करके तद् व्यापक मक्खन करणों को एकत्र संघटित हो जाने की योग्यता का विशेषाधान कर देता है, ठीक इसी प्रकार असवर्ण विवाह का परिणाम मद्य की भांति विकार-मूलक और सगोत्र विवाह का परिणाम समान दूध के मेल की भांति अनुन्नति कारक होता है, परन्तु सवर्ण असगोत्र विवाह का परिणाम औटे हुए दूध में मठे के संयोग से नवनीत प्रसव की भांति दम्पति के परम्परागत गुणों का विकाशक होता है।
       विवाह सम्बन्ध की सीधा सूत्र यही है कि न विजातीय से यौन सम्बन्ध हो और नां ही अत्यन्त सजातीय से। किन्तु सवर्ण असगोत्र का यौन सम्बन्ध ही शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार के मानव जीवन की स्थिति का स्थापक हो सकता है। भारतेतर देशों की जातियें जहां उन्नति के शिखर पर आरूढ़ होकर भी कतिपय शताब्दियों में ही सदा के लिये समाप्त हो जाती हैं वहां संसार की आदिम जाति कही जाने वाली हिन्दू जाति अन्यून दो अर्ब वर्ष से संसार में अपना अस्तित्व स्थिर रख रही है और जब तक आगे भी विशुद्ध रक्त संरक्षण की ‘स्ववर्ण असगोत्रा विवाह संस्था’ यह प्रणाली सुरक्षित रहेगी तब तक यह जाति अपने अस्तित्व को स्थिर रखने में समर्थ रहेगी ऐसी आशा है।
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