Bhavishy Darshan
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Tantrik Pendant/ तांत्रिक लाकेट

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दीक्षान्त समारोह फोटो

 
प्रतिमा पूजन क्यों ?
       प्रायः सनातनधर्मों मूर्तिपूजा को ही ईश्वर की उपासना समझते हैं यह क्यों? उपासना के नौ भेदों में श्रवण, कीर्तन, स्मरण और पाद सेवन ये चार भेद पहले आते हैं इनके बाद पांचवां नम्बर अर्चना-अर्थात्-मूर्तिपूजा का है। वन्दना, दास्य, सख्य और आत्म-निवेदन ये चार भेद आगे आते हैं। इस तरह मूर्तिपूजा को उपासना का माध्यम समझना चाहिए। जैसे नाभि में ही पहिए के सब अरे लगे रहते हैं ओर वह एक धुरी में घूमता है ठीक इसी प्रकार ईश्वर की धुरी में घूमने वाले चक्र की नाभि मूर्ति पूजा है। शेष सब भेद विभिन्न अरे हैं। यह ठीक है कि अमुक ‘अरा’ जमीन की ओर है तो दूसरा उसकी अपेक्षा आकाश में चढ़ा है परन्तु आखीर हैं वे सब एक ही नाभि में ओत-प्रोत। ठीक इसी प्रकार श्रवणादिक साधन साधरण अधिकारियों के लिए होने के कारण कहने में भले ही तुच्छ साधन समझे जायें और आत्म-निवेदन को ऊँचे अधिकारियों की वस्तु मानकर इसे उच्चतम ख्याल किया जाए परन्तु वस्तुतः ‘काम जो आवे कामरी क्या ले करे कमाच’-के अनुसार सर्वाध      आध्यात्मिक मार्ग में किसी वस्तु का मूल्य उस वस्तु के गुण दोषों पर निर्भर नहीं, किन्तु अधिकारी के लिए उसकी उपादेयता पर निर्भर है। लोक में भी पानी के स्थान में सुवर्ण का सुमेरु प्रदान करने पर भी प्यास नहीं बुझती। सुमेरु देकर यदि एक चुल्लू पानी मिल सकता हो तो तृषित मुमूर्ष उसे सहर्ष खरीदने को तैयार होगा। सो श्रवण आदि को तुच्छ और वन्दन आदि को उच्च समझने की भ्रान्ति हेय हैं। इसी प्रकार ध्यान, योग, समाधि उत्तम है। और प्रतिमा-पूजन निकृष्ट है इस प्रकार की जो भावना मूर्खों के हृदय बद्धमूल हो रही है, वह भी सर्वथा भ्रम-मूलक और अज्ञान-गर्त में गिराने वाली है।
       उपासना का नाम प्रतीक-उपासना है। इसका सीध अर्थ है कि जब हम श्रवण करने चलते हैं तब भगवान के सगुण चरित्र ही तो हमारे श्रवण का विषय हो सकते हैं। भगवन्नाम-कीर्तन में भी सगुण-रूप के नाम लेना ही हमारा ध्येय रहता है। जिसका श्रवण और कीर्तन हुआ उसी का तो स्मरण होगा! पाद-सेवन भी ‘अपाणिपाद’ का सम्भव नहीं। वन्दना अभिवादन और स्तुतिपाठ ‘अवाड्.मन सोगोचर’ का क्योंकर हो सकता है? कोई स्वामी हो तभी तो हम उसके दास बनेंगे। जब हम स्वयं ही श्री 108 स्वामी बने बैठे हैं फिर ‘दास्य’ का अभिनय केवल विडम्बना है। ‘आत्म-निवेदन’ तभी सम्भव है जब कि इस भेंट को ग्रहण कर सकने वाला कोई हमसे पृथम् हो!
      कहना न होगा कि सब का सब उपासना काण्ड पूज्य-पूजक और स्व-स्वामी-भाव सम्बन्ध की भित्ति पर ही स्थिर है। यहां ‘सोअहम्’ के स्थान में ‘दासोअहम्’ का ही साम्राज्य है। एतावता यह सिद्ध हुवा कि मूर्ति-पूजा ईश्वर उपासना की जान है। या द्रविड़ प्राणायाम किए बिना सीधे शब्दों में यूं कह दो कि मूर्ति-पूजा ही वस्तुतः ईवर उपासना है। ज्ञान कोटि में पहुँचने के लिए साधक का मनः जब तक सुस्थिर न हो सके तब तक मूर्तिपूजा के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा मार्ग ही नहीं है कि जिसके द्वारा मन को वश में किया जा सके। शास्त्र में लिखा है कि:
      मनोधृतिर्धरणा स्यात्समाधिब्रढ़म्दी स्थितिः। अमूतौ चेस्स्थिरा न स्याततो मूर्ति विचिन्तयेत्।।
      अर्थात् मन की धृति को धारणा कहते हैं। ब्रह्म में स्थित हो जाने का नाम समाधि है, परन्तु यदि बिना मूर्ति मन स्थिर न हो तो तब मूर्ति की आवश्यकता पड़ती है।
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