Bhavishy Darshan
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Favourable Gems/राशि रत्न


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Tantrik Pendant/ तांत्रिक लाकेट

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दीक्षान्त समारोह फोटो

 
चरणामृत क्यों ले?
      दण्डवत् प्रणाम का वर्णन ‘क्यो ‘पूवार्ध’ के अभिवादन विज्ञान’ प्रघट्ट में हो चुका है। अब क्रमप्राप्त चरणामृत लेने की इतिकर्तव्यता का निरूपण किया जाता है।
      (क) पाप व्याधियों को दूर करने के लिये विष्णु भगवान् के चरणों का अमृत रूप-जल सर्वोत्तम औषधि है। उसमें तुलसी दल का सम्मिश्रण होना चाहिए और वह जल सरसों का दाना जिसमें डूब सके इतने प्रमाण में होना चाहिए।
      (ख) जैसे विषघन औषधि के सेवन से शरीर का विष्ट नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार चरणामृत समस्त पातकों का नाश होता है।
      (ग) अकाल मृत्यु दूर करता है, सब रोगों को नष्ट करता है और पवित्र चरणमृत सब पापों का भी ज्ञय करता है।
      (घ) तुलसी की गन्ध से सुवासित वायु जहां तक घूमता है वहाँ तक दिशा और विदिशाओं को पवित्र करता है और उभ्दिज्ज, स्वेदज, अण्डज तथा जरायुज चारों प्रकार के प्राणियों का प्रीणान करता है।
      (ड) नित्य भगवान् का चरणामृत पीना चाहिए और भगवत्प्रसाद खाना चाहिए, शेष पुष्प चन्दन आदि द्रव्य &      तुलसी की उप्पत्ति, उसका शालिग्राम शिला से सम्बन्ध, तथा विष्णु भगवान् का उक्त दोनों पदार्थो से वैज्ञानिक सम्पर्क एवं उक्त सब आख्यानों का आध्यात्मिक, आधिदैविक, और आधिभौतिक तात्पर्य आदि सब बातें ‘पुराणदिग्दर्शन ग्रंथ के विष्णु वृन्दा प्रघट्ट में विस्तापूर्वक लिखी जा चुकी है, वही चरणामृत के द्वारा पूर्वोक्त फलों की प्राप्ति का भी विवेचन किया गया है। इसलिये यहां हम पुनरपि पिष्टपेषण न करते हुये केवल इतना अधिक कह देना चाहते है कि अन्यान्य सम्प्रदायों को जीना तो आता ही नहीं, उनको मरना भी नहीं आता। आर्य समाजो भाई अपने अन्त्येष्टि संस्कार की बड़ी प्रशंसा किया करते है और कहा करते हैं कि ‘सस्कार विधि के अनुसार हमारे यहां मुर्दे की लाश के बराबर तोलकर ही यह सम्भव है। घी और इतना ही चन्दन, इतनी ही केसर आदि सुगन्धित वस्तुएँ डालनी लिखी हैं सचमुच हमारी अन्त्येष्टि बहुत ही शानदार है, सनातनधर्म में ऐसा विधान नहीं।’ एक महाशय ने बडे़ ही गर्व के साथ एक बार जब हमसे यह चर्चा की तो मैंने पूछा कि जहां तक संस्कार-विधि की पंक्तियों का सम्बन्ध है निःसन्देह आपकी अन्त्योष्टि गर्व की वस्तु है, परन्तु प्रश्न तो यह है कि आप तो मर ही जाएंगे, ये सब वस्तुएं आपके साथ जलाना या न जलाना यह तो घर वालों की कृप पर निर्भर है। यदि वह न डालें तब?-प्रत्यक्ष भी देखने में आ रहा है कि लाश के बराबर क्य? -आपकी खोपड़ी के बराबर भी घी नहीं डाला जाता, चन्दन केसर की तो कथा ही क्या है? फिर ऐसी पराधीन व्यवस्था पर इतना इतराना अनावश्यक है, कहीं संस्कार विध के कोरे काले लेखमात्र पर फूलकर झटपट मरने के लिए उद्यत हो जाने की भूल मत कर बैठना ! हमने और भी बहुत सी विनोदपूर्ण आलोचना की।
      हमारी इस सच्ची आलोचना पर महाशय जी सन्नाटे में आ गए, बोले- ‘बात तो ठीक है ! वाकई सभी सम्बन्धी अपने-अपने स्वार्थ के होते हैं, फिर ऐसा क्या उपाय हो सकता है कि जिससे घर वाले कंजूसी न कर सकें? मैंने कहा- महाशय जी, यदि आप हमारे महर्षियों की विधि को प्रयोग में लावें तो फिर आपकी घरवालों की कृपा पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं किन्तु अपनी अन्त्येष्टि की आवश्यक सामग्री आप स्वयं पहिले से ही जुटा सकेंगे और चन्दन केसर का इतना स्टाक आप बिना दाम दिए अपने साथ रख सकेगें, कि जिससे घर वालों की कंजूसी का खतरा आपके जीवन काल में ही समाप्त हो जाएगा। महाशय जी बोले वह कैसे ? मैंने कहा- आप नित्य नियमपूर्वक दोनों समय मन्दिर मे जाकर भगवान् का चरणामृत लिया करें। चरणामृत में चन्दन, केसर आदि द्रव्य आपके देह में गए तो चालीस-पचास वर्ष की अवशिष्ट आयु में अवश्य ही कई सेर पेट में समा जाएंगे। आपका यह देह ही चन्दन केसर बन जाएगा, फिर इस पर खर्च भी कुछ न होगा और घर वालों का व्यर्थ भरोसा भी न करना पडे़गा ! महाशय जी बड़े प्रभावित हुए। सो त्रिदोषघ्न तुलसीदल और स्वर्णकरण-संघटित शालिग्राम का जल धार्मिक दृष्टि से तो उपादेय है ही, परन्तु साथ ही वह आराजा-रंक सब के लिए स्वर्णाघटित मकरध्वज महोषधि की भान्ति नितांत बलवर्द्धक एक टानिक भी तो है, जिसके सेवन से किसी भी रोग के कीटाणु ही शरीर में नहीं पनप सकते।
      तुलसी के पौधे से संस्पृष्ट वायु जहाँ तक घूमता है वहाँ तक मलेरिया आदि रोगों के कीटाणु विनष्ट हो जाते हैं-यह रहस्य शास्त्रीय प्रमाणों तो सुप्पष्टतया पीछे अंकित किया ही गया है, परन्तु वनस्पति-शास्त्र विशेषज्ञ श्री जगदीशचन्द्र बसु महोदय ने अपने यन्त्रों द्वारा प्रत्यक्ष भी यह सब के सामने प्रकट कर दिखाया
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